रास्ते
दूर कहीं उन बिस्मिल रास्तों में, बस यूँ ही चलते चले हम। जहाँ ना वक़्त के सवाल थे, ना कहीं सज्दा करने को जवाब थे। यूँ तो ज़हन में कई बातें थीं, पर उस मंज़र को तोड़ने की ज़ुर्रत ना थी, फिर एक मौसम ख़ामोशियों ने दस्तक दी, और ना जाने कितनी सूनी घड़ियाँ यूँ गुज़रती गयीं। कुछ देर सवेर जब बदली छटी , एक नज़र इधर ,एक मुस्कुराहट उधर , और बस यूँ ही, फिर एक बार बिन मतलब बातों की लड़ियाँ सजती गयी, एक अजीब से सुकून में, तेरे ही फ़ितूर में, तुझे रूठ के मनाने में, अलग होके छटपटाने में, अपने ही इस शोर में, कहीं खोए हुए उन सन्नाटों में, हाँ , हाँ उन्ही बिस्मिल रास्तों में, तेरे ही साथ से तो बने हमारे हौसले थे।